चुनावी तारीखों की हुई घोषिणा
चुनाव की तारीखों की घोषिणा के बाद राजग और महागठबंधन में कौन रहेगा और कौन जाएगा, यह भी लगभग तय हो चुका है। 2-4 दिनों में तस्वीर स्फटिक की तरह बिलकुल साफ हो जाएगी लेकिन सोचने का विषय ये है कि फिर उनका क्या होगा, जो अपनी ताकत से अधिक सीट मांग रहे थे? यह बड़ा सवाल इन दिनों बिहार में चर्चा में है।
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी की नाव को क्या मिलेगा किनारा ?
रालोसपा अब किसी गठजोड़ में नहीं है। उसकी नाव मंझधार में फंस-सी गई है। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) ने किसी तरह जदयू के साथ सटकर थोड़ी जगह हासिल कर ली है लेकिन रालोसपा की स्थिति अभी अच्छी नहीं है। महागठबंधन में तल्ख तेवर दिखा रहे रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के लिए एक तरह से महागठबंधन में रहने का विकल्प खत्म हो गया है। इसका फायदा यह हुआ कि कांग्रेस को अपनी सीट बढ़ने की उम्मीद है। कभी राजद से हक मांगने के क्रम में हम और रालोसपा का बड़ा भाई बनकर कांग्रेस दबाव बनाती दिखती थी।
अब कांग्रेस ने किनारा कर लिया है। उसे बस अपनी सीटों से मतलब है। कांग्रेस को राजद इस बार 0 सीटों का ऑफर दिया है और इस पर कांग्रेस की करीब-करीब सहमति बन गई है।रालोसपा की स्थिति से सबक लेकर विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) थोड़ा समझकर चल रही। स्पष्ट हो रहा कि वीआइपी के अध्यक्ष मुकेश सहनी सीटों को लेकर रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा जैसी गलती नहीं करेंगे।
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गठबंधन से बाहर वाले दलों को भी लग रहा डर
जिन क्षेत्रीय दलों को राजग या महागठबंधन में ठौर नहीं मिला है उनके अंदर भी असुरक्षा घर कर रही है। इसमें पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी, शरद यादव की लोकतांत्रिक जनता दल, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन जैसी पार्टी शामिल हैं। भले ही सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करें, लेकिन इन सभी दलों को यह अहसास है कि अकेले वह ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ सकते।